गोंडवाना रियासत
प्राचीन काल से ही भारत में प्राचीन सभ्यताओं व आदिम सभ्यताओं के साक्ष्य प्राप्त होते रहे हैं। गोंडवाना रियासत के गोंडो के विषय में विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। रामायण काल में वर्णित दण्डकारण्य क्षेत्र मुख्यतः गोंड जनजाति का ही निवास स्थल माना जाता है। गोंडवंश की राजनीतिक सत्ता का सर्वप्रथम उल्लेख ‘रामनगर के संस्कृत लेख में मिलता है जिसमें यादवराय से लेकर हृदयशाह तक के 54 शासकों का उल्लेख किया गया है। जिसका उत्कीर्णन सन् 1667 ई में. गढ़ा शासक हृदय शाह ने करवाया था।
गढ़ा के शासकों का दूसरा विवरण कर्नल स्लीमैन ने 1837 ई. में प्रस्तुत किया, जिसमें यादवराय से लेकर अंतिम शासक सुमेरशाह तक का वर्णन किया गया है। सबसे महत्त्वपूर्ण 18वीं सदी के अंत में चौथी सूची में लिखे गये संस्कृत श्लोक संग्रह ‘गडेशनृपवर्णनम्’ से प्राप्त होती है, जिसमें 54 श्लोकों में इस काल के 63 शासकों का उल्लेख उनकी शासन अवधि सहित किया गया है। रामनगर शिलालेख से सर्वप्रथम गोरक्षदास व खरजी सहित अन्य शासकों का उल्लेख मिलता है जो संभवतः 13वीं शताब्दी में कल्चुरियों के पतन के पश्चात् स्थापित हुए थे।
गोंड़ राज्य की स्थापना में भौगोलिक पृष्ठभूमि व शारीरिक गठन का महत्त्व
गोंडों के विषय में प्राचीनता का पता उनके प्रोटोऑस्ट्रेलॉयड प्रजाति से संबंधित होने से चलता है। रिजले के अनुसार गाँड द्रविड प्रजाति से संबंधित है अतः निष्कर्षतः गोंड भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीनतम जनजातीय समूह से संबंधित है।
गोंडों की शारीरिक संरचना भी उन्हें भारत में राजनीतिक सत्ता के रूप में स्थापित करने में सहायक सिद्ध हुई। गोंडों की चमड़ी, बाल व आंखे गाढे रंग की होती हैं, सिर मुख्यतः लंबे व शीर्ष देशना कम होती है। चेहरा सामान्य रूप से चौड़ा तथा ठोडी संकरी व नुकीली होती है। शरीर की लंबाई मध्यम से निम्न होती है यह सभी शारीरिक मापदण्ड व प्राचीनता तथा उनका निवास स्थल उन्हें शारीरिक रूप से बलिष्ट व जुझारू बनाते हैं जो कि गोंडों को राजनीतिक सत्ता स्थापित करने में सहायक सिद्ध हुई।
गोंडवाना रियासत की स्थापना से पूर्व की पृष्ठभूमि
13वीं शताब्दी के आसपास संपूर्ण मध्य भारत में उपजी अस्थिरता ने गोंडों को भी पनपने का अवसर प्रदान किए। कलचुरि शासक विजयसिंह के समय सत्ता कमजोर होते ही चंदेलों ने अधिकार कर लिया जिसका साक्ष्य चंदेलों में किलों की सूची में गढ़ा के वर्णन से मिलता है। चंदेलों के आधिपत्य को भी 13वीं सदी के उत्तरार्ध में सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद (1246-66 ई.) ने समाप्त किया जिसका उल्लेख हमें दमोह जिले के बटियागढ़ शिलालेख में मिलता है। दमोह क्षेत्र पर सल्तनत की सत्ता के समांतर परमार शासक द्वितीय जयवर्मन का अधिकार था।
बलवन के पश्चात् दमोह से दिल्ली सल्तनत का शासन समाप्त हुआ और चंदेल पुनः स्थापित हुए। जिसका साक्ष्य हमे दो शिलालेखों से मिलता है। जिसमें एक 1287 में चंदेलों की सत्ता की पुष्टि करता है वहीं दूसरा 1304 से 1309 ई. में नरेश हम्मीरदेव की आधीनता की। अलाउद्दीन खिलजी ने 1309 ई. में बाघदेव को पराजित का दमोह पर सत्ता स्थापित की जो मुहम्मद बिन तुगलक के समय तक दिल्ली सल्तनत का अभिन्न अंग रहा। 13101 में यादव राजा रामचन्द्र द्वारा भी दमोह पर आक्रमण किया गया था।
1328 ई. के पश्चात् का समय इस क्षेत्र का अंधकार युग है क्योंकि फिर तत्कालीन साक्ष्य अबुल फजल उल्लेखित करता है जो गोंडवाना रियासत के शासक संग्रामशाह का वर्णन करते हैं। इस अंधकार समय में ही संभवतः गोंडों को अपनी राजनीति सचा स्थापित करने का मौका मिला होगा।
गोंडवाना रियासत के गोंड राज्य का दक्षिण भारत से संबंध
गोंडों की शारीरिक संरचना उन्हें दक्षिण भारतीयों या द्रविड़ समूह के अधिक निकटस्थ प्रदर्शित करती है।
स्टीफन हिस्लॉफ के अनुसार गोंड आंध्रप्रदेश के मूल निवासियों के समकक्ष है जो भारत के मध्य भाग में आकर बस गये और साक्ष्य के रूप में गोंड़ तथा कोंड में समानता को प्रदर्शित करते हैं।
गियर्सन के अनुसार तेलुगु भाषी लोग खोंड की गाँड या कोंडे भी कहते हैं। भाषायी रूप से भी गॉड और खोड भाषायें क्रमशः तमिल और तेलुगु के अधिक निकटस्थ हैं।
निष्कर्षतः दक्षिण भारतीय खॉड और मध्य भारतीय गोंड मूलतः एक ही कबीले के रहे होंगे। भाषीय आधार पर भी गोंड द्रविड़ भाषा के निकटस्थ हैं उनका दक्षिण भारतीय संपर्क एतिहासिक साक्ष्यों से भी उद्घटित होता है। एक ओर जहां यादवराय का जेत्म गोदावरी नदी के निकट होने और उसके गढ़ा आने की कथाएं प्रचलित हैं वहीं दूसरी ओर गोंड़ शासक संग्रामशाह के सिक्कों में तेलुगु लिपि का अंकन तत्कालीन समय में उसके तेलुगुभाषियों के संपर्क को प्रदर्शित करता है।
उपर्युक्त विवरणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि गोंड मूलतः दक्षिण भारत के ही निवासी थे। रसैल तथा हीरालाल के अनुसार जिनका प्रवास मार्ग दक्षिण से उत्तर की ओर था। उनके अनुसार वे गोदावरी नदी से चांदा, इंद्रावती, छत्तीसगढ़ तथा बैनगंगा से होकर सतपुड़ा क्षेत्र में आए।
गोंडवाना रियासत के गोंड़ों का वर्गीकरण
वास्तव में गोंडों के वर्गीकरण और उनके स्वरूप को लेकर स्पष्ट रूपरेखा प्राप्त नहीं हुई है, किंतु विभिन्न विद्वानों ने उनकी शारीरिक संरचना, क्रियाकलापों के आधार पर विभिन्न शाखाओं में विभाजित किया है।
इम्पीरियल गजैटियर में इन्हें दो शाखाओं में विभाजित किया है- राजगोंड अर्थात् कुलीन वर्ग और घुर गोंड या सर्वसाधारण गोंड़ राजगोंड गोंडो का ही एक कुलीन और संभ्रात वर्ग था, जो अपनी राजनैतिक कुशलता व शक्ति के कारण राजगोंड़ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। स्टीफन फुश इन्हें चार भागों में विभाजित करते हैं देखगोंड़, सूर्यवंशी-राजगोंड़, देवगाढ़िया गोंड और रावण-वंशी गोंड़। जैनकिंस ने इन्हें भौगोलिक आधार पर विभाजित किया है जैसै मण्डला के आसपास के मण्डला गोंड, खटोला (सागर-दमोह) के खटुलहा गोंड़, चांदा के जरिया गोंड, देवगढ़ के देवगढ़िया गोंड। स्टीफन हिस्लॉप ने गोंडों के बारह भेद बताए हैं। 1929 ई. में ही राजगोंड़ों के एक तथाकथित संगठन ने दो पुस्किताएं गोंडी धर्म पुराण और गोंडी धर्म विचार प्रकाशित की, जिसमें गोंडों की चार शाखाओं देवगोंड़, सूर्यवंशी राजगोंड, देवगढ़िया गोंड और रावणवंशी गोंड़ को क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के समतुल्य माना है।
राजगोंड शाखा के विषय में विभिन्न विद्वानों के मत से निष्कर्षतः कहा जा सकता है गोंड वंश की ही शाखा राजगोंड है जो हिंदू रीति रिवाजों से प्रभावित होकर खुद को श्रेष्ठ या कुलीन प्रदर्शित करने के उद्देश्य से राजगोंड कहलाने लगे।
गोंडवाना रियासत में गढ़ा राज्य या गोंड वंश की स्थापना
गोंडवाना रियासत में गढ़ा राज्य की स्थापना सेहलगांव निवासी जोधसिंह पटेल के पुत्र यादवराय ने 1328-1440ई. के मध्य स्थित अंधकार युग में की थी।
एक किवदति के अनुसार मां नर्मदा ने यादवराय को स्वप्न देकर सर्वे पाठक की सहायता से गढ़ा वंश की स्थापना हेतु आदेशित किया। जिससे प्रेरणा लेकर उसने गढ़ा की राजकुमारी रत्नावली से विवाह किया। तदुपरांत गढ़ा वंश की नींव डाली।
गढ़ा वंश के संस्थापक के रूप में यादवराय की पुष्टि रामनगर शिलालेख और ‘गढेशनृपवर्णनम्’ के उल्लेख से होती है। इसी वंश में बाद में पुलस्त्यवंशी संग्रामशाह जैसे प्रतापी शासक हुए वहीं इसी साम्राज्य में वीरांगना दुर्गावती भी हुई।
गोंडवाना रियासत के यादवराय
गोड वंश का संस्थापक यादवराय था. जिसका जन्म गोदावरी नदी के तट पर स्थित सेहलगांव में हुआ था। इनके पिता का नाम जोधसिंह पटेल था।
प्रारंभिक जीवन में यादवराय ने लॉजी (बालाघाट) के हैहयवंशी शासक के यहां नौकरी प्रारंभ की, तत्पश्चात् माँ नर्मदा की प्रेरणा से दमोह के शासक की पुत्री रत्नावली से विवाह कर कलांतर में गढ़ा वंश की स्थापना की। ‘गढेशनृपवर्णनम् अभिलेख’ के अनुसार यादवराय को नागवंशीय कछवाहा राजपूत माना गया है।
अकबरनामा के अनुसार यादवराय का उत्तराधिकारी खरजी हुआ। इसके बाद क्रस्शः गोरक्षदास, सुखनदास. अर्जुनदास, संग्रामशाह उत्तराधिकारी हुए।
गोंडवाना रियासत के खरजी
अकबरनामा के अनुसार खरजी लगभग 1440ई. में गोंडवाना रियासत की गाड़ी पर बैठा और इसने अपनी योग्यता व चालाकी से प्रदेश के अन्य शासको से पेशकश वसूल किया
इस प्रकार उसने एक संगठित सेना एकत्रित कर गढ़ा राज्य के उत्कर्ष में योगदान दिया। खरजी ने लगभग 1460 ई. तक शासन किया। तत्पश्चात् गोरक्षदास गद्दी पर बैठा।
गोंडवाना रियासत के गोरक्षदास
गोरक्षदास का उल्लेख अकबरनामा में मिलता है जिसने लगभग 1480 ई. तक शासन किया।
इसी के समय में 1467 ई. में मालवा के सुल्तान महमूद शाह के सैन्य अधिकारी ने किला अमरैल के बागी शासक राय चीता को पराजित किया, इस घटना का उल्लेख शिहाब-हकीम ने अपनी पुस्तक ‘मासिर-ए-महमूदशाही’ में किया है।
1468 ई. में महमूदशाह ने शेरखान व फतेहखान को करहडा व गढ़ा पर आक्रमण करने भेजा जिसमें गढ़ा के किलेदार मुक्कद्मराय धर्मा को बंदी बनाकर मार दिया गया। गोरक्षदास के उपरांत पुत्र सुखनदास सत्तारूढ़ हुआ।
सुखनदास या संगिनदास
गोंडवाना रियासत में रक्षदास के उपरांत सुखनदास लगभग 1480 ई. सत्तारूढ़ हुआ।
उसने सर्वप्रथम सैन्य शक्ति को बढ़ाते हुए 500 घुड़सवार तथा 60000 की पदैल सेना का गठन किया।
साथ ही विभिन्न जाति समुदायों के सहयोग से राज्य को स्थायित्व तथा सुदृढ़ बनाया वहीं पड़ोसी राज्यों से अच्छे संबंध स्थापित किए लगभग 1500 ई. में संगिनदास का शासन समाप्त हुआ तथा उसका उत्तराधिकाती अर्जुनदास गद्दी पर बैठा।
अर्जुनदास
लगभग 1500 ई. के आसपास अर्जुनदास गद्दी पर बैठा। अकबरनामा के अनुसार राज्यारोहण के समय उसकी आयु 40 वर्ष थी और राज्यारोहण के तुरंत बाद उसे अपने ज्येष्ठ पुत्र अमानदास (आम्हणदास) के विद्रोह का सामना करना पड़ा, जिसका उल्लेख ठर्रका (दमोह) के दो सती लेखों में भी मिलता है।
अर्जुनदास के समय में गुरू नानक देव जी देशाटन करते हुए गढ़ा राज्य में आए जिसका उल्लेख सिख घर्व ग्रंथ ‘सूरज-प्रकाश’ में मिलता है। वे इस यात्रा के दौरान अमरकंटक, गढ़ा, उज्जैन, होशंगाबाद, नरसिहपुर बालाघाट से गुजरे इसीलिए आज भी इन स्थानों पर गुरूदारों के अवशेष हैं। इसी कालक्रम में जैन संत स्वार्थी तरण तारण का भी अभ्युदय हुआ जो बिलहरी जबलपुर में जन्मे थे।
अर्जुनदास के समय में ही उसके पुत्र आम्हणदास ने विद्रोह किया और अर्जुनदास की हत्या कर दी।
आम्हणदास का विद्रोह
अर्जुनदास ने आम्हणदास से रूष्ठ होकर अपने छोटे पुत्र जोगीदास को शासक नियुक्त किया। जिससे क्रोधित होकर आम्हणदास ने षडयंत्रपूर्वक अपने पिता अर्जुनदास की हत्या कर दी। जिससे छुब्ध होकर जनता ने आम्हणदास को बंधी बना लिया, जिसका फायदा उठाकर रीवा नरेश वीर सिंह देव ने गढ़ा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की परंतु आम्हणदास द्वारा अपने कृत्य के लिए माफी मांगने के कारण वीर सिंह देव ने उसे गढ़ा का राज्य लौटा दिया। इस घटना का उल्लेख 1540 ई. में रचित ‘वीरभानुदय काव्यम्’ नामक पुस्तक में मिलता है।
आम्हणदास (संग्रामशाह/संग्रामसिंह)
ठर्रका (दमोह) के दो सती लेखों के आधार पर आम्हणदास लगभग 1510-13ई के मध्य सिंहासन पर बैठा। सिंहासनरूढ़ होने के उपरांत आम्हणदास ने ‘महाराजा श्री राजा आम्हणदास देव की पदवी धारण की।
फरिश्ता के अनुसार इसी के समय रतनपुर में कल्चुरी वंश के शासक पुरूषोत्तम सहाय का शासन था। सुल्तान इब्राहिम लोदी का कृपापात्र बनने के उद्देश्य से विद्रोही भाई जलाल को पकड़कर सन् 1518 ई. में सुल्तान को सौंप दिया।
तत्पश्चात् आम्हणदास ने संग्रामशाह संग्राम सिंह की उपाधि धारण की जिसका साक्ष्य दमोह से प्राप्त एक चौकोर सोने के सिक्के पर अंकित “संग्राम सिंह” से मिलता है।
संग्राम शाह पदवी गुजरात के शासक सुल्तान बहादुर ने रायसेन विजय में सहायता देने के कारण आम्हणदास को – दी थी। आम्हणदास की दो पत्नियों पद्मावती तथा सुमति का उल्लेख उसके संस्कृत ग्रंथ रसरत्नमाला से मिलता है।
पद्मावती से ही दो पुत्र दलपतिशाह व चंद्रशाह प्राप्त हुए। कलांतर में इन्हीं दलपतिशाह से चंदेल राजकुमारी दुर्गावती का विवाह हुआ। संग्राम शाह की मृत्यु 33 वर्ष के सफल शासन के पश्चात् लगभग 1541-43 ई. के मध्य हुई
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By- Arvind singh kaurav
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