भील जनजाति
भील जनजाति मध्य प्रदेश मे पाई जाती है यह बहुत मेहनती जनजाति है और उनके द्वारा मध्य प्रदेश में कई तीज त्यौहारमनाए जाते और यह अपने संस्कृति के लिए बहुत मानी जाती
परिचय- भील शब्द-संस्कृत भाषा के भिल्ल शब्द या द्रविड़ भाषा के बील शब्द- जिस का अर्थ-धनुष
इतिहासकार कर्नल टॉड भीलों को ‘वन पुत्र’ और टॉलमी ने ‘तीरंदाज’, तथा इन्हें पुलिन्द भी कहा जाता है। ऋग्वैद में इन के लिए ‘अनास’ शब्द का प्रयोग किया गया।
ऋषि वाल्मिकी स्वयं भील थे। ये अपने आप को महादेव का वंशज मानते हैं। एकलव्य को इन का पूर्वज माना जाता है। भील जनजाति सामान्यतः मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में पायी जाती है। मध्यप्रदेश में भील जनजाति धार, झाबुआ, रतलाम, नीमच, अलीराजपुर और निमाड़ वाले हिस्से मैं पाई जाती है।समुदाय मूल रूप से- शिकारी और योद्धा है।
2011 की जनगणना के अनुसार मध्य प्रदेश की सबसे बडी जनजाति है। (म.प्र. की कुल जनजातीय जनसंख्या में 39.1% है।) सर्वाधिक जनसंख्या झाबुआ या धार जिला (12 लाख से अधिक) में है
इस जनजाति के लोग अत्यंत आभूषण पहनते हैं।युवा भील हाथ में कडे, कानों में चांदी की बालियां, धोती तथा पगडी पहनते हैं। युवा भील बांसुरी बजाने के शौकीन होते हैं। स्त्रियां अंगरखा नामक वस्त्र धारण करती है।स्त्रियां शरीर पर टैटू गुदवाने के साथ-साथ चांदी के आभूषण तथा घाघरा तथा ओढनी पहनती है। मूल निवास स्थान- राजस्थान के कुंभलगढ के डोल / डोलका।
उपजातियां
मध्य प्रदेश में भील की बहुत सारी उपजातियां हैं जिसमें भिलाला, उमडी, तडवी,मदवी,पुजारो,कोटवार,सन्यान गोत्र,निगवाल्या,सिंगाड़िया।
भिलाला सबसे बडी उपजाति। ये अपने आप को महाराणा प्रताप के वंशज मानते हैं। (मूल स्थान-छतीसगढ),पटलिया,बरेला,राथियास,बैगास उमडी ये सबसे दयनीय स्थिति में है। ये गुना, शाजापुर जिलों में ज्यादातर पाई जाती है। तडवी भील, इस्लाम धर्म को मानती है। इन्होंने औरंगजेब के समय में इस्लाम धर्म कबुल किया। मदवी या बदवो या भगत इस उपजाति का व्यक्ति भीलों में सबसे पवित्र माना जाता है। पुजारो- इस उपजाति के व्यक्ति को औषधीय तथा रोगों के उपचार में ज्ञान होता है।
कोटवार- इस जाति के व्यक्ति भीलों के गांवों की प्रशासनिक व्यवस्था संभालता है। सन्यान गोत्र- बिल्ली के पूजक, निगवाल्या – मछली नहीं खाते हैं। सिंगाड़िया-बैलों के पूजक
सामाजिक विशेषताएं
भील जनजाति समाज पितृसत्तात्मक समाज है। भील गोत्र प्रथा को मानते हैं और एक गोत्र में विवाह वर्जित है। अनाज रखने के लिए- कनगी व पानी के बर्तन का स्टेण्ड- मुहालदा
मकान / घर ‘कू’ अथवा टापरा
निवास स्थान- फाल्या (चार-पांच झोपड़ी)
फाल्या का समुह – पाल (बड़े गांव) भोमट – भील बाहुल्य क्षेत्र
पाल का मुखिया – गमेती या सरपंच
पटेल-गांव के प्रशासनिक सामाजिक कार्य करना।
तड़वी- पटेल का सहायक।
बड़वा-देवी-देवताओं भार ग्रहण (डॉक्टर के रूप में मान्यता प्राप्त)
गायक- बड़वा का सहायक , कोटवार गांव का चौकीदार
कोटवार – गांव का चौकीदार
राबड़ी (मकई की थूली + छाछ), महुआ, ताड़ी। ज्वार, मक्के की रोटी इनका प्रिय भोजन है।यह कडकनाथ प्रजाति के मुर्गे का शिकार करते हैं।
भील जनजाति संसार की सबसे अधिक रंगप्रिय जनजाति है। भीली स्त्रियां विश्व की सबसे अधिक गहना प्रिय है।
भील स्त्रियां अंगरखा नामक वस्त्र धारण करती है।
स्त्रियां व पुरूष शरीर पर ‘कथीरा’ (चांदी कांसा)
आर्थिक विशेषताएं
भीलों ने अपना आय का प्रमुख स्त्रोत कृषि को बनाया है इन के द्वारा झुम कृषि- चिमाता तथा दजिया की जाती है जिस में पहाडी पर चिमाता (पालवी ऊंची पहाड़ी पर रहने वाले भील) और मतल मैदान पर- दजिया (वागड़ी- मैदानों में रहने वाले भील) कृषि कार्यों में एक दूसरे की सहायता लेने वाले को हल्मा कहते है। जंगल मे उत्पन्न हुई वस्तुओं को शहरों में बेचते हैं। शहरों में मजदूरों की तरह कार्य करते हैं। अलीराजपुर के जोबट के भील- पुजा दरियां बनाते हैं। नीमच में नंदना ब्लॉक प्रिंट करते हैं।
धार्मिक विशेषताएं
भीलो पर हिन्दू मान्यताओं का प्रभाव बहुत पडा है। हिन्दू देवी- देवताओं जैसे शिव, राम, कृष्ण, लक्ष्मी इत्यादि की पूजा करते हैं।
भील भगवान शंकर को अपना संरक्षक मानते हैं। ये घोड़े के प्रति श्रद्धा रखते है तथा सर्प की पूजा करते हैं। (सर्प देव- भाटी देव), आनुष्ठान के रूप मे खूंटदेव या खूंटड़ा देव प्रमुख तथा शक्तिशाली देवता राजापंथा / रापंथा, बाव देव-इन्हें इंद्र देव भी कहते हैं।
गल देव , नरसिंह भगवान के स्वरूप मे पूजे जाते है और इच्छाओं व मनोतियों को पूर्ण करते है गल देव जो पितृदेव है। जस्मा देवी को लक्ष्मीदेवी माना जाता है (इनकी पूजा- दीपावली), आमजा माता या केलड़ा माता को कुलदेवी (उदयपुर में स्थित) तथा टोटम को कुलदेवता बोलते है। भराड़ी देवी को लोक देवी बोलते है और वैवाहिक अवसर पर इनकी पूजा की जाती है। खोड़ियाल माता मंदिर झाबुआ मे है।
सांस्कृतिक विशेषताएं – जन्म तथा मृत्यु
- डोंगर ढलवाई इस प्रथा मे नवजात शिशु के आगमन पर उसका सिर उत्तर व पैर दक्षिण की तरफ करके मकई के ढेर पर लेटाया जाता है।
- सांता प्रथा इस प्रथा मे शिशु के जन्म के सातवें दिन प्रसुता को हल्दी लगाकर स्नान कराया जाता है।
- डाम प्रथा इस प्रथा मे बच्चे के 12 वर्ष के होने पर दाहिने हाथ की भुजा पर तपता तीर दागते हैं।
- गाता / गातला इस प्रथा मे मृत्यु होने पर स्मृति में गाड़े हुए पत्थर के शिल्प।
- टिया इस प्रथा मे मृत्यु के तीसरे दिन समूह भोज कराया जाता है।
- कट्टा प्रथा इस प्रथा मे मृत्यु भोज कराने की परंपरा है।
विवाह के प्रकार
- भगोरिया विवाह- यह विवाह भगोरिया मेले के दौरान मिले लड़के और लड़कियों के मध्य होता है।
- नातरा विवाह – विधवाएं पुनर्विवाह करती हैं।
- गोल गधेड़ो विवाह भगोरिया हाट में परीक्षा विवाह
- घर घुसी विवाह – घुसपैठिया विवाह, लड़की जबरदस्ती लड़के के घर घुस जाती है।
- सेवा विवाह – वर, वधू के घर पर घर जंवाई बनकर रहता है, उसे ‘सेवा विवाह’ कहते हैं।
- विनीमय विवाह- इसमें एक घर में लड़की लेकर लड़का दे दिया जाता है (इस आटा-साटा विवाह भी क
- भरायण विवाह – कन्या पक्ष के गरीब माता-पिता हेतु।
- मंगनी विवाह- भांजगड़िया द्वारा मध्यस्थता व दापा प्रथा में सहमति ।
- पहराणवी-मामा पक्ष के द्वारा भांजे या भांजी के लिए कपड़े लाए जाते हैं।
- लातमार साला नृत्य- बारात की आगवानी पर वधु पक्ष की स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
- विवाह के दौरान प्रथाएं- हल्दी पीठी, बाना बिठाना, मंडप, बारात (बारात में मटके में मदीरा-छांक)
दापा प्रथा
- यह एक दहेज की प्रथा है। ये झाबुआ जिले में प्रमुख रूप से यह प्रथा चलती है। इस प्रथा में वर पक्ष के द्वारा वधु पक्ष को दहेज दिया जाता है।
- साथीदार अभियान- ये अभियान अक्टूबर 2016 से चलाया जा रहा है। जिससे इस प्रथा को समाप्त किया जा सके।
- दापा के प्रकार- नकद रकम- दापा, मवेशी- खांडा कूटा, अनाज- सॉवा।
भील नृत्य
- भगोरिया, दुधिया, डोहिया, गोल-गधेड़ो, गहर नृत्य- भगोरिया हाट में किया जाता है।
- गहर नत्य होली के अवसर पर, गरबी – दीपावली पर युवक-युवतियों के द्वारा किया जाता है।
- डोहा या डोहो- मनौती वाला धार्मिक नृत्य है।
- वीरवाल्या- श्रावण व नवरात्रि में बड़वा द्वारा किया जाता है।
- रेलोगीत- मालवा में भील जनजाति द्वारा गीत गाया जाता है।
- दागला, घूमर, गौरी, कहरवा, पडवा
बोली या भाषा
भीली बोली भील जनजाति द्वारा बोली जाती है। इस के प्रमुख जिलेः- रतलाम, धार, झाबुआ, अलीराजपुर, खरगोन, इत्यादि है।इस बोली का सर्वाधिक प्रभाव म.प्र. के पश्चिमी हिस्से में दिखाई देता है।इस भाषा का प्रयोग सर्वप्रथम सन् 1835 में पादरी थॉमसन ने किया था।
भित्ति चित्र
पिथोरा चित्र- यह चित्र शान्ति और समृद्धि का प्रतीक है। इस मे सामान्यतः बेल और घोड़ों के चित्रों बनाए जाते है। पिथौरा कलाकार को ‘लखिन्दरा’ कहा जाता है। इस चित्रकला में माहिर पैमा फाल्या (शिखर सम्मान- 1987 व तुलसी सम्मान- 2017) तथा भूरी बाई (पद्मश्री-2021) है।
अस्त्र-शस्त्र
भील अपने साथ धनुष बाण रखते हैं।
फालिया- लोहे का बड़ा धारदार हथियार।
भगोरिया मेला
होली के पहले 7 दिनों तक लगता है। (2 दिन- गुलालिया, 3 दिन- गोल गधेड़ो, 2 दिन- उजाड़िया) भील लड़के और लड़कियां अपने लिये जीवनसाथी ढूढ़ते है और भाग जाते है, उसके बाद विवाह कर लेते है।
भील लड़के और लड़कियां गुलाल का इस्तेमाल करके अपना साथी पसंद करते हैं। ये मेला झाबुआ में प्रमुख रूप से लगता है।