सिंधिया वंश का अभ्युदय मराठा राज्य के उत्कर्ष तथा औरंगजेब के पतन के समय 17वीं शताब्दी के मध्य में प्रारंभ हुआ। ग्वालियर राज्य का राजवंश सिंधिया या शिंदे वंश के नाम से जाना जाता था। यह वंश महाराष्ट्र से संबंधित था।
भारतीय इतिहास में यह लोकप्रिय कहावत है कि “अनुपजाऊ और दुर्गम प्रदेश वीर और लडाकू योद्धाओं की जननी है।” यह कथन मराठों पर पूरी तरह चरितार्थ होता है। सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मराठों का उदय “आकस्मिक अग्निकाण्ड” की भांति नहीं हुआ, जैसा कि ग्राण्ट डफ ने लिखा है कि भारत में मुगल सत्ता को गंभीर चुनौती देने वाले मराठों के उत्थान में भौगोलिक, राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक प्रभावों और दशाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
किवदंतियों के अनुसार सिंधिया परिवार बहमनी वंश के समय में विख्यात सिलेदार था। इस नाम के दो मराठा परिवारों का उल्लेख प्राप्त होता है जिनमें से एक मराठा परिवार का संबंध अपने वंशगत कन्हेरखेड गांव के पटेल नाम से तथा दूसरा खीराव के अभियान से संबंधित माना जाता है। दोनों ही परिवार राजपूत होने के दावे की पुष्टि करते हैं।
महाराष्ट्र के 36 प्रमुख राजकुल गोत्रों में “शिन्दे” गोत्र को भी सम्मिलित किया जाता है। सिंधिया राजवंश की उत्पत्ति के विषय में एक मत यह भी है कि सिंधिया शासक “मुनवी” जाति के कृषकों से संबंधित है। सिंधिया राजवंश की उत्पत्ति के विषय में एक मत यह भी है कि प्राचीन काल में “सेन्द्रक” नामक क्षत्रिय थे। इसी सेन्द्रक से “सेन्द्रे” और इसी से शिन्दे तथा बाद में इन्हीं को सिंधिया कहा जाने लगा।
सिंधिया वंश की औपचारिक शुरुआत पेशवा द्वारा 2 नवंबर, 1731 ई. को राजकाज व कर वसूली अधिकार होल्कर, सिंधिया व पंवार को संयुक्त जिम्मेदारी सौंपे जाने से हुई। मराठों के उत्कर्ष एवं उदय के इसी ऐतिहासिक विकास क्रम में सिंधिया राजवंश के उत्कर्ष एवं उदय का इतिहास समाहित है। जिसका प्रारंभ सतारा के कन्हेरखेड गांव में जन्मे राणोजी शिंदे ने किया जो कि मुगल साम्राज्य के उत्पादन अधिशेष में अपने दावे से प्रारंभ हुआ। यह प्रारंभ में चौथ व सरदेशमुखी उपकरों की वसूली के अधिकार तक सीमित या परन्तु बाद में सिंधिया साम्राज्य के रूप में उद्घटित हुआ।
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