राजपूत वश की राजनीतिक स्थिति
राजपूत वश की राजनीतिक स्थिति मे राजनीति का स्वरूप विकेन्द्रीयकृत एवं सामन्तवादी था। इस समय में भारत में कोई एक शक्विशाली राज्य नहीं था बल्कि अनेक छोटे-छोटे राजपूत राज्य थे, जिनके बीच अपने राज्य का विस्तार करने के लिए लड़ाइयां होती रहती थी।

राजपूत समय में सामन्तवाद का पूर्ण विकास हो चुका था। राजपूत राजाओं का सम्पूर्ण राज्य अनेक छोटी छोटी जागीरों में विभकत था। प्रत्येक जागीर का प्रशासन एक सामन्त के हाथ में होता था। 12वीं शताब्दी ई. की रचना भट्टभुवनदेव कृत अपराजितपृचत्र में महामण्डलेश्वर, माण्डलिक, महासामन्त, सामन्त, लघुसामन्त, चतुरंशिक जैसे विविध सामन्तों का उल्लेख है, जी क्रमशः एक लाख, पचास हजार, बीस हजार, दस हजार, पांच हजार तथा एक हजार गांवों के स्वामी होते थे। इस प्रकार राजपूत राजा अपनी प्रजा पर शासन न करके अपने सामन्तों पर शासन करते थे।
केन्द्रीय प्रशासन
राजा
राजपूत कालीन राजनीतिक व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। राज्य का सर्वोच्च अधिकारी राजा होता था। राजा का पद प्रायः वंशानुगत होता था। इस काल में राजा के पद का पूर्ण दैवीयकरण हो गया था। राजा भारी-भरकम उपाधियां धारण करते थे, जैसे-महाराजाधिराज, परमभट्टारक, परमेश्वर आणि सिद्धान्ततः राजा निरंकुश होते थे, किन्तु व्यवहार में धर्म एवं लोकपरम्पराओं का पालन करते थे। मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि ने प्रजारक्षण तथा प्रजापालन को राजा का परम् कर्तव्य बताया है।
मंत्रिपरिषद्
राजा की सहायता के लिए एक मंत्रिपरिषद् होती थी। मंत्रिपरिषद् के महत्वपूर्ण पदाधिकारी गुप्त काल के समान ही थे, जैसे-महासंधिविग्रहिक (विदेश नीति का प्रमुख अधिकारी), महादण्डनायक (गुद्ध एवं न्याय का प्रमुख अधिकारी), महाबलाधिकृत (सेना का प्रमुख अधिकारी), महाप्रतिहार (राजप्रसाद की सुरक्षा का प्रमुख अधिकारी) आदि।
राजपूत काल में मंत्रिपरिषद् का महत्व कम हो गया था। राजा अपने मंत्रियों के परामर्श की उपेक्षा करने लगे थे। मेरुतुंग कृत प्रबन्धचिन्तामणि से ज्ञात होता है कि मालवा के परमार शासक वाक्पति मुंज ने अपने प्रधानमंत्री रुद्रादित्य की सलाह के विपरीत कल्याणी के चालुक्य शासक तैलप द्वितीय के राज्य पर आक्रमण किया था।
राजस्व प्रशासन
राजपूत काल में राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भू-राजस्व था। भू-राजस्व प्रशासन से जुड़े अधिकारी प्रायः गुप्त काल के अनुरूप ही थे, जैसे- ध्रुवाधिकरण (भू-राजस्व संग्रह का प्रमुख अधिकारी), अग्रहारिक (दान विभाग का प्रमुख अधिकारी), व्यायाधिकरण (भूमि सम्बन्धी विवादों का निपटारा करने वाला प्रमुख अधिकारी) आदि।
न्यायिक प्रशासन
इस काल में राज्य का सर्वोच्च न्यायिक अधिकारी राजा होता था। राजा की सहायता के लिए अन्य न्यायिक अधिकारी भी होते थे. जैसे धर्मस्थीय (मुख्य न्यायाधीश)। ग्रामीण स्तर पर ग्राम पंचायतों के द्वारा न्यायिक कार्य किए जाते थे तथा उन्हें स्वायत्ता प्राप्त थी।
सैनिक प्रशासन
इस काल में राज्य का सर्वोच्च सेनापति स्वयं राजा होता था। सेना के मुख्यतः 04 अंग थे पैदल सेना, रथ सेना, गज सेना एवं अश्वारोही सेना । राजपूत राजाओं ने रथ एवं गज सेना को ही विशेष महत्व दिया। किन्तु इस काल में केन्द्र में स्थायी सेना का अभाव था तथा युद्ध के अवसर पर राजा की सहायता हेतु सामन्तों के द्वारा ही सेनाएं भेजी जाती थीं। ऐसी सामन्ती सेना में सहयोग एवं समन्वय का अभाव होता था। यही कारण था कि राजपूत राजा तुर्क आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना नहीं कर पाए थे।
निष्कर्ष
इस प्रकार राजपूत काल के प्रारंभिक चरण (650-1000 ई.) में राजनीतिक प्रणाली विकेन्द्रीयकृत एवं सामन्तवादी थी। राजा को स्थिति एवं सैन्य संगठन कमजोर था। किन्तु द्वितीय चरण (1000-1200 ई.) में गुर्जर प्रतिहार, कल्चुरी, चन्देल, परमार, चौहान एवं चालुक्य वंश के शासकों द्वारा वृहद् राजपूत राज्यों की स्थापना के उपरान्त राजनीतिक स्थिति में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए थे, जैसे-राजा की शक्ति में वृद्धि हुई थी, सामन्तों पर उसका प्रभावी नियंत्रण स्थापित हुआ था तथा राजस्व, न्यायिक व सैनिक प्रशासन में भी मजबूती आई थी।